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आज कल आधुनिक काल में तंत्र को लेकर लोगो नें बहुत सारी भ्रांतिया एवं बहुत ज्यादा कुविचार उत्पन्न हैं परन्तु वास्तव में तंत्र वह नहीं जो लोगो नें सोच रखा है।
वास्तविक्ता में आइये जानते हैं कि तंत्र है क्य। तंत्र का अर्थ है व्यवस्था (means system) और तंत्र साहित्य के अनुसार यह बहुत ही जटिल विषय है, जिसे बिना गुरु के नहीं समझा जा सकता। तंत्र के बारे में सबसे बड़ी भ्रान्ति यह है कि तंत्र केवल वशीकरण व सम्मोहन तक ही सिमित है, परन्तु ऐसा है नहीं। आदि गुरु शंकराचार्य अपनी पुस्तक सौंदर्य लहरी में कहते हैं कि तंत्र साहित्य वेदों से भी प्राचीन मने गए हैं और यह सरल मार्ग है कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति के लिए।
तंत्र शिव द्वारा देवी पारवती को दिया गया, तंत्र को शिव मुखोक्त सूक्त, यह तंत्रः सूक्त अर्थात शिव के मुख निकले हुए सूक्त तंत्र कहलाते हैं। तंत्र का शब्दिक उदभव इस प्रकार माना जाता है।
तनोति त्रयातिः तंत्र
जिससे अभिप्राय है तनना, विस्तार और फैलाव।
इस प्रकार इससे त्राण होना तंत्र है। हिन्दू , बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तंत्र परम्पराए मिलती हैं। यहाँ पे तंत्र साधना से अभिप्राय है
गुत्वं या गूढ़ साधनाओं से किया जाता है
तंत्रो को वेदों में काल के बाद की रचना मानी गयी है। जिसका विकास प्रथम हुआ अब साहित्य रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ को मध्य युग की दार्शनिक तथा धार्मिक रचनाए मानी गई है उसी प्रकार तंत्रो में प्राचीन आख्यान व कथानक का समावेश होता है।
यूरोपियन विज्ञानो ने अपने उपनिवेशवादी लक्ष्यो को ध्यान में रखते हुए तंत्रो की गूढ़ साधना या eroteric practice या सांप्रदायिक कर्मकाण्ड बताकर भटकाने की कोशिश की है परन्तु यह बिलकुल असत्य है।